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गौ और गुरु पूर्णिमा :भारतीय संस्कृति की दो पवित्र भावनाएं

भारतवर्ष की सांस्कृतिक परंपरा में दो अत्यंत पावन प्रतीक हैं – गौमाता और गुरु। इन दोनों का महत्त्व हमारे शास्त्रों, पुराणों, लोकसंस्कृति और जीवन-दर्शन में सदैव सर्वोच्च रहा है। गौ जीवनदायिनी हैं और गुरु ज्ञानदाता। जब हम गुरु पूर्णिमा जैसे पवित्र पर्व पर इन दोनों के महत्व को एक साथ स्मरण करते हैं, तब यह दिन केवल श्रद्धा या पूजन तक सीमित नहीं रहता, बल्कि आत्मोन्नति और लोककल्याण का संकल्प बन जाता है। ‘गु’ का अर्थ है अंधकार और ‘रु’ का अर्थ है प्रकाश। जो महापुरुष अविद्या रूपी अंधकार से निकालकर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाएं, वे सच्चे गुरु हैं। गुरु पूर्णिमा का अर्थ है – व्यास पूजन का दिवस, महर्षि वेदव्यास की स्मृति में, जिन्होंने वेदों का विभाजन करके ज्ञान को व्यवस्थित स्वरूप दिया। आज के युग में भी प्रत्येक साधक, विद्यार्थी और मनुष्य के जीवन में गुरु का स्थान सर्वोच्च है। केवल आध्यात्मिक गुरु ही नहीं, माता-पिता, शिक्षक, मार्गदर्शन देने वाले और सद्बुद्धि देने वाले प्रत्येक व्यक्ति गुरु स्वरूप हैं और पूजनीय हैं। गौमाता को ‘कामधेनु’ कहा गया है – जो सभी इच्छाओं की पूर्ति करती है। वैदिक युग से लेकर आज तक गौ भारतीय जीवन के केंद्र में रही है। गौ धार्मिक दृष्टि से तो पूजनीय हैं ही, साथ ही आर्थिक, पर्यावरणीय और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोबर – ये पंचगव्य – आयुर्वेदिक औषधियों का मूल हैं। गौ आधारित प्राकृतिक खेती से लेकर जैविक ऊर्जा तक, हर क्षेत्र में गो-आधारित समाधान उपलब्ध हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था, प्राकृतिक उपचार, संतुलित आहार और पर्यावरण संरक्षण में गौमाता की भूमिका अमूल्य है। गुरु पूर्णिमा का पर्व हमें याद दिलाता है कि गौमाता की रक्षा और सेवा केवल भावनात्मक नहीं बल्कि शास्त्रसंगत, वैज्ञानिक और आत्मिक दृष्टिकोण से की जानी चाहिए। जब गुरु हमें यह बताते हैं कि गाय के माध्यम से हम समृद्ध और संस्कारी भारत के स्वप्न को साकार कर सकते हैं, तब हमें गोपूजा के साथ-साथ गो-आधारित जीवनशैली को अपनाना चाहिए। गुरु वह दृष्टि प्रदान करते हैं जिससे गोसेवा केवल कर्म नहीं बल्कि धर्म बन जाती है। गुरु पूर्णिमा का यह पावन पर्व हमें सिखाता है कि जैसे गुरु जीवन को दिशा देते हैं, वैसे ही गौमाता जीवन को पोषण देती हैं। दोनों का सम्मान, सेवा और संरक्षण ही वास्तव में भारतीय संस्कृति की सेवा है। आइए, इस गुरु पूर्णिमा के दिन संकल्प लें – गौमाता की रक्षा करें, गुरुओं के ज्ञान को जीवन में उतारें और भारत को पुनः वैदिक तेज से आलोकित करें। गुरुदेव को वंदन! गौमाता को वंदन! श्री गुरवे नमः । श्री सुरभ्यै नमः ।
— डॉ. वल्लभभाई कथीरिया

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