महाराष्ट्र में बंद रहेंगे दो दिन के लिए कत्लखाने।

महाराष्ट्र में दस दिन मांस बिक्री पर रोक ।
बीते कुछ सालों में हिंदू त्योहारों के दौरान शाकाहार को थोपना धीरे-धीरे भारत के विभिन्न राज्यों में एक पैटर्न बन गया है. पंढरपुर वारी नाम की सालाना तीर्थयात्रा महाराष्ट्र में 700 से अधिक वर्षों से की जाती रही है और भक्ति आंदोलन से गहराई से जुड़ी हुई है, जो अब भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार के नियंत्रण में आ गई है. हाल ही में महाराष्ट्र के ग्रामीण विकास और पंचायत राज मंत्री और भाजपा नेता जयकुमार गोरे ने सोलापुर जिला प्रशासन को, जिसमें पंढरपुर शहर भी शामिल है, 10 दिनों के लिए किसी भी प्रकार के मांस की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का निर्देश दिया है – यह प्रतिबंध आषाढ़ी एकादशी से सात दिन पहले से लेकर पंढरपुर मंदिर तक तीर्थयात्रियों की पैदल यात्रा के समापन के तीन दिन बाद तक जारी रहेगा. गोरे ने मीडिया से बात करते हुए दावा किया कि चंद्रभागा नदी के तट पर स्थित पंढरपुर मंदिर में आने वाले तीर्थयात्रियों की मांग के बाद यह निर्णय लिया गया. गोरे ने कहा, ‘कई वारकरियों (तीर्थयात्रियों) ने मुख्यमंत्री (देवेंद्र फडणवीस) से इस अवधि के दौरान मांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने की इच्छा व्यक्त की है. इसलिए, कलेक्टर को अंततः निर्णय लेने का निर्देश दिया गया.’ इस दौरान जिले में शराब की बिक्री पर भी पूर्ण प्रतिबंध की घोषणा की गई है. आने वाले दिनों में तीर्थयात्रियों के जिन अन्य क्षेत्रों से यात्रा करने की योजना है, वहां भी इसी तरह के निर्णय लागू किए गए हैं. पंढरपुर की पैदल यात्रा करने की परंपरा, जिसकी शुरुआत 13वीं शताब्दी में संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम जैसे संतों ने की थी, जाति-विरोधी भावना में गहराई से निहित है. इस सामाजिक-धार्मिक आंदोलन में संत तुकाराम की शिक्षाओं ने, विशेष रूप से जाति-आधारित भेदभाव को चुनौती दी. संत-कवि आंदोलन, जो 13वीं से 18वीं शताब्दी तक चला और जिसे महाराष्ट्र के पुनर्जागरण काल या सुधारना के रूप में भी जाना जाता है, को बाद में 19वीं और 20वीं शताब्दियों में कई जाति-विरोधी नेताओं द्वारा पुनर्जीवित किया गया, जिन्होंने भक्ति आंदोलन के संतों की शिक्षाओं को अपनाया. हालांकि, पिछले कुछ सालों में भाजपा और कई दक्षिणपंथी समूहों ने इस संगठित संप्रदाय में बढ़ती दिलचस्पी दिखाई है और इसमें हिंदुत्व विचारधारा को शामिल करने के कई प्रयास किए हैं. वारी में आने वाले लोग, जिन्हें वारकरी के नाम से जाना जाता है, ज़्यादातर बहुजन जातियों और मांसाहारी समुदायों से आते हैं. हालांकि तीर्थयात्रा के दौरान वे मांस खाने से परहेज करते हैं. सामान्य तौर पर अन्य ग्रामीणों द्वारा मांस खाना ऐतिहासिक रूप से कोई मुद्दा नहीं रहा है. पर हाल के वर्षों में, विशेष रूप से महाराष्ट्र में भाजपा सरकार के तहत कई दक्षिणपंथी समूहों ने, इस वार्षिक उत्सव के दौरान मांस पर राज्यव्यापी प्रतिबंध की वकालत की है. इससे पहले भी नवरात्रि, रामनवमी तथा अन्य त्योहारों के दौरान इसी तरह के प्रयास किए गए हैं. इस महीने की शुरुआत में देशी गायों के कल्याण के लिए गठित महाराष्ट्र गोसेवा आयोग ने सभी कृषि उपज मंडी समितियों (एपीएमसी) को निर्देश दिया था कि वे 3 जून से 8 जून यानी ईद-उल-अज़हा (बकरीद) से पहले और बाद की अवधि तक कोई भी मवेशी बाजार न लगाएं. सरकारी प्रस्ताव के माध्यम से लिए गए इस निर्णय को अंततः वापस ले लिया गया.